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Mathuradheesh Temple: राजस्थान के कोटा में दुनिया के पहले पीठ भगवान मथुराधीश का प्राचीन मंदिर स्थित है। साल 1737 में मथुराधीश जी को कोटा लाया गया और तभी से भगवान यहां विराजित हैं। इसे छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है।

Mathuradheesh Temple: राजस्थान का कोटा शहर में स्थित भगवान मथुराधीश के मंदिर को छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर भगवान मथुराधीश की पहले पीठ मानी जाती है, जो चंबल नदी के किनारे स्थित है। पौराणिक कथा के मुताबिक फाल्गुन शुक्ल एकादशी के मौके पर मथुरा के गोकुल क्षेत्र के गांव करनावल में श्रीमद् वल्लभाचार्य को मथुराधीश जी ने दर्शन दिए थे। साल 1737 में मथुराधीश जी को कोटा लाया गया और तभी से भगवान यहां विराजित हैं। 

तत्कालीन मंत्री द्वारकाप्रसाद ने भेंट की थी अपनी हवेली 

मंदिर के पदाधिकारी ने जानकारी दि कि उस समय कोटा रियासत के तत्कालीन मंत्री द्वारकाप्रसाद ने अपनी पाटनपोल की हवेली भगवान मथुराधीश जी के लिए भेंट कर दी थी। उसी समय से कोटा के लोगों में भगवान मथुराधीश जी के प्रति अपार श्रद्धा रही है। इसके बाद ठाकुरजी को कोटा में स्थापित किया गया था। बताया जाता है कि शहर के तत्कालीन महाराव दुर्जनसाल ने कोटा का नाम नंदग्राम रख दिया था। मंदिर में सालों से वल्लभ कुल की मर्यादाओं के मुताबिक भगवान की पूजा अर्चना की जा रही है। 

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मनमोहक छवि के दर्शन से आनंदित हो उठता है मन

मंदिर के बारे में कहा जाता है कि जो यहां एक बार भगवान के दर्शन कर लेता है उसे बार-बार यहां आने का मन करता है। भगवान की छवि इतनी मनमोहक है कि यहां आए भक्तों का मन आनंदित हो उठता है। जन्माष्टमी के मौके पर यहां खास आयोजन किया जाता है।  महाराव दुर्जनसाल हाड़ा बूंदी से वल्लभकुल सम्प्रदाय की पहली पीठ लेकर आए थे। भगवान श्रीकृष्ण के वल्लभमय के सप्त स्वरूपों में से मथुराधीश जी की मूर्ति प्रथम मानी जाती है। इसी कारण से यह मंदिर भक्तों के लिए खास माना जाता है। 

मंदिर से जुड़ा इतिहास 

इतिहासकार फिरोज ने बताया कि भगवान मथुराधीश जी गोकुल के पास स्थित कर्णावल गांव में प्रकट हुए थे। वल्लभाचार्य ने अपने शिष्य पदमनाथ के पुत्र को मथुराधीश जी की मूर्ति दी थी। जिसके बाद उन्होंने इस मूर्ति को अपने बड़े बेटे गिरधर को दे दी थी, जिसकी वे हमेशा पूजा करते थे। बादशाह औरंगजेब के अत्याचारों से बचने के लिए भगवान की मूर्ति को बूंदी लाया गया, यहां के शासक राव राजा भाव सिंह ने इसे साल 1744 में कोटा के शासक महाराव दुर्जनशाल को दे दी थी। जिसके बाद शहर में भगवान की मूर्ति को स्थापित किया गया।

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