Rajasthan Folk Theatre: नब्बे के दशक में राजस्थान के मारवाड़ की गली-मोहल्लों में लोकनाट्य शैली ‘रम्मत’ की झलक दिखाई पड़ती थी, लेकिन आज के इंटरनेट के दौर में यह कला लुप्त हो गई है। आज भी पुराने कलाकारों द्वारा इसका जिक्र किया जाता है। इस लोकनाट्य शैली में कलाकार गायकों के संवादों पर अभिनय करते थे।
लोकनाट्य शैली ‘रम्मत’
रम्मत लोकनाट्य शैल कब से शुरू हुई इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, लेकिन 18वीं सदी के अंत से लेकर 19वीं सदी तक इसका उद्भव काल माना जाता है। इसे ज्यादातर बीकानेर व जैसलमेर इलाकों में होली, सावन आदि मौकों पर पेश किया जाता था। इसमें लोक कवियों की ओर राजस्थान के लोक गायकों और महापुरुषों के जीवन पर कविताएं और गीत तैयार किए जाते थे। इसके बाद रम्मत लोकनाट्य कलाकारों द्वारा रंगमंच पर मंचित किया जाता था।
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तेज कवि ने मनोरंजन में भरा था क्रांति का रंग
रम्मत जैसलमेर का प्रमुख केंद्र हुआ करता था। यहां के प्रसिद्ध तेज कवि ने इस लोकनाट्य में मनोरंजन के साथ-साथ क्रांति का रंग भी भरा था। उन्होंने रम्मत का अखाड़ा श्रीकृष्ण कंपनी की भी शुरुआत की थी। वहीं साल 1943 में तेज कवि ने स्वतंत्र बावनी की रचना की और इसे महात्मा गांधी को भेंट किया था। रम्मत कलाकारों में तेज कवि के साथ तुलसी राम, फागू महाराज, मनीराम व्यास और सुआ नाम शामिल है।
गायकों के संवादों पर अभिनय करते थे कलाकार
बता दें कि रम्मत शुरू होने से पहले कलाकार मंच पर बैठकर अपने दर्शकों से कुछ बात-चीत कर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करता है। इसके बाद गायकों की ओर से संवाद गाए जाते हैं और उसके बाद कलाकार द्वारा संवादों पर नृत्य और अभिनय किया जाता है। इस लोकनाट्य का मुख्य वाद्य नगाड़ा और ढोलक होते हैं, जिनकी धुन पर कलाकार अपनी प्रस्तुति पेश करते हैं।