Khejarli Village: 245 साल पहले राजस्थान की रेगिस्तान भूमि में बिश्नोई समाज के 363 लोगों ने पेड़ों की रक्षा करने के लिए बलिदान दे दिया था। इस घटना को खेजड़ली नरसंहार के नाम से जाना जाता है। यह कहानी है इंसान की प्रकृति के प्रति अटूट प्रेम की।
पवित्र खेजड़ी का पेड़
यह पेड़ सांस्कृतिक, औषधीय और आध्यात्मिक महत्व के लिए पूजनीय है और बिश्नोई समाज में पवित्र माना जाता है। यह पेड़ थार रेगिस्तान में काफी ज्यादा पाया जाता है। छपनिया अकाल के दौरान सनी निवासियों ने इसकी छाल खाकर ही गुजारा किया था।
सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि धार्मिक ग्रंथो में भी इस पेड़ को पवित्र माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान राम ने रावण के खिलाफ युद्ध से पहले इसी पेड़ की पूजा की थी। इसी के साथ ऐसा भी कहा जाता है कि पांडवों ने अपने वनवास के दौरान अपना गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाया था। आपको बता दे कि आज की दशहरे पर्व पर लोग सोने और समृद्धि के प्रतीक के रूप में इस पेड़ के पत्तों को घर लाते हैं।
क्या थी इस नरसंहार के पीछे की कहानी
दरअसल जोधपुर के महाराज अभय सिंह ने एक महल बनाने की ठानी। इस काम के लिए उन्हें चूने के भट्टे जलाने थे और उसके लिए भारी मात्रा में लकड़ी की जरूरत थी। इसलिए उन्होंने अपने मंत्री गिरधर भंडारी को लकड़ी खरीद कर लाने का आदेश दिया। लकड़ी ढूंढते वक्त सेना को जोधपुर से 25 किलोमीटर दूर खेजड़ली गांव मिला। यहां पर काफी ज्यादा खेजड़ी के पेड़ थे।
इसके बाद सेना ने यहां से पेड़ काटने का निश्चय किया। जब शाही सैनिक पेड़ काटने लगे तो अमृता देवी जो की बिश्नोई महिला थी अपनी दो बेटियों के साथ पेड़ों से लिपटकर सेना का विरोध करने लगी। जब सेना ने उन्हें हटने का आदेश दिया तो वह नहीं मानी। इसके बाद सेनापति ने उन्हें फांसी पर चढ़ा देने का आदेश दिया। अमृता देवी का सर काट दिया गया। लेकिन बलिदान देते देते उन्होंने कहा "सिर बांटे रूंख रहे, तो भी सस्तो जाण।"
इस घटना के बाद और भी ग्रामीण इस विरोध में शामिल हुए और पेड़ों से लिपट गए। लेकिन सैनिक भी नहीं मानें और इसी वजह से 363 पुरुष, महिलाएं और बच्चे शहीद हो गए। जब इसकी खबर महाराज को पड़ी तो उन्होंने ताम्रपत्र पर आदेश जारी किया की इस कार्य पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। इस घटना के बाद उसे गांव का नाम बदलकर खेजड़ली रख दिया गया।
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