Charbait Folk Singing Art: राजस्थान की प्रसिद्ध लोक गायन कला चारबैत की विभिन्न पार्टियां लखनऊ, रामपुर, भोपाल, हैदराबाद आदि जगहों पर मौजूद हैं। लेकिन जो मुकाम राजस्थान में इस सांस्कृतिक विरासत को मिला है वो कही और नहीं मिला है। अभद्र भाषा का उपयोग करने के लिए टोंक रियासत के चौथे नवाब इब्राहिम अली खां को प्रतिबंधित कर दिया गया था, लेकिन सूफियाना कलाम के माध्यम से इस लोक गायन कला को न केवल राज्य में बल्कि पूरे देश में एक नई पहचान मिली। आज देश के विभिन्न शहरों में चारबैत लोक गायन कला की कई पार्टियां मौजूद है, जो इस अनूठी विरासत को संरक्षण प्रदान कर रही हैं। 

कला से जुड़ा इतिहास 

सन् 1798 में अमीर खां राजस्थान के टोंक जिले में आ गए थे, जिसके बाद साल 1806 में उन्होंने शहर पर अपना कब्जा कर लिया था। इस दौरान उन्होंने शहर के बहीर क्षेत्र में पड़ाव डाला था। यहीं से लोक गायन कला चारबैत का प्रचलन शुरू हुआ था। यहां इसका इतना प्रचलन किया गया कि ये लोक गायन टोंक की एक अनोखी लोक गायन कला मानी गई। टोंक जिले में 90 प्रतिशत शायरों ने चारबैत ही लिखी है। चारबैत सुफियान, आशिकाना होने के साथ ही सामाजिक और धार्मिक कलाम अन्य से ओतप्रोत भी रही है।

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क्यों कहते है चाहर बैत?

लोक गायन कला को चाहर बैत या चारबैत के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि ये पश्तों में गाई जाने वाली कला है। यह भाषा दक्षिण एशिया के पठानों की प्रमुख भाषा हुआ करती थी, जो अफगानिस्तान में बोली जाती है। इसी कारण से इस कला को ईरान और अफगानिस्तान से निकली कला मानी जाती है। यह कला उस समय की है जब कबीलाई संस्कृति राजस्थान में अपने परवान पर हुआ करती थी। उस दौरान फौजी इस राग को जोश भरने के लिए गाया करते थे। आज यह कला भारत के कई इलाकों की लोक गायन कला के रूप में अपनी जगह बना चुकी है।