Beneshwar Dham: हर साल दक्षिणी राजस्थान में सोम, माही और विलुप्त हो चुकी जाखम नदियों का संगम यहां की आदिवासी आबादी का एक आध्यात्मिक केंद्र बनता है। वागड़ क्षेत्र में डूंगरपुर और बांसवाड़ा जिलों की सीमा पर स्थित बेणेश्वर धाम में लाखों आदिवासी भक्ति हर साल अनुष्ठान और उत्सव के साथ माध पूर्णिमा मनाने के लिए इकट्ठा होते हैं। इस दिन लगने वाले मेले को आदिवासियों का महाकुंभ भी कहा जाता है।
मेले की पौराणिक जड़ें
बेणेश्वर धाम सोम और माही नदियों द्वारा निर्मित एक दुर्लभ डेल्टा पर स्थित है। बेणेश्वर नाम को मुख्य मंदिर में स्थित पवित्र शिवलिंग से लिया गया है। जिसका मतलब होता है 'डेल्टा के भगवान'। ऐसा कहा जाता है की नवाटापरा गांव की एक गाय रोज इस शिवलिंग पर आकर अपने थनों से दूध चढ़ती थी। गाय का मालिक हमेशा इस बात से अचरज में रहता था कि गाय के भरे थन अपने आप खाली कैसे हो जाते हैं। एक दिन वह गाय का पीछा करते-करते मंदिर तक आ गया। उसने देखा कि गए शिवलिंग पर दुग्धाभिषेक कर रही है। अचानक मलिक को देखकर गाय हड़बड़ाहट में मुड़कर भाग लेकिन उसके खुर से शिवलिंग खंडित हो गया। आज भी वह खंडित शिवलिंग ज्यों का त्यों स्थापित है और उसी की पूजा हो रही है।
आस्था और अनुष्ठान का मेला
यह मेला हिंदू कैलेंडर के अनुसार हर साल माघ शुक्ल एकादशी से शुरू होता है। इस मेले में मावजी महाराज के 9वें उत्तराधिकारी अच्युतानंद महाराज के नेतृत्व में ध्वजारोहण अनुष्ठान किया जाता है। हजारों भक्त एक साथ जुलूस में साबला के हरि मंदिर से बेणेश्वर धाम तक की यात्रा करते हैं।
यह अनूठा समागम वास्तव में तीन अलग-अलग मेलों के विलय का प्रतिनिधित्व करता है। दरअसल इस यात्रा में भजनों, पारंपरिक संगीत वाद्य यंत्रों की ध्वनि के साथ नृत्य करते आदिवासी भाग लेते हैं। अलग-अलग मेलों का एक साथ विलय होता है। एक भगवान शिव के प्रति समर्पित, दूसरा मावजी महाराज की पुत्रवधू जन कुंवर द्वारा विष्णु मंदिर के लिए शुरू किया गया, और तीसरा आदिवासी समुदाय द्वारा पूर्वजों की पूजा पर आधारित है।
इस मेले के दौरान भक्त संगम में पवित्र डुबकी लगाते हैं और देवताओं की पूजा करते हैं। इसी के साथ यहां पर मृत प्रियजनों की अस्थियों को भी विसर्जित किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि ऐसा करने से उन्हें मोक्ष मिलता है।
पैतृक अनुष्ठान
इस मेले के सबसे शुभ दिन पर यानी कि माघ पूर्णिमा पर आदिवासी परिवार पंडितों के मार्गदर्शन में अपने रिश्तेदारों की अस्थियों को पवित्र जल में विसर्जित करते हैं। इसके अलावा कई दिनों तक मंदिरों में अलग-अलग खाद्य प्रसाद बनाए जाते हैं। जैसे पूर्णिमा पर हलवा, प्रतिपदा पर दाल बाटी और चूरमा और पंचमी पर मोदक बनाया जाता है।
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