Rajasthan Temple: मथुराधीशजी मंदिर (कोटा) के कॉरिडोर का निर्माण कार्य अब जल्द ही शुरू होगा। मंदिर, शहर के नंदग्राम (पाटनपोल) में विराजे वल्लभ कुल समुदाय का है। मंदिर के कॉरिडोर का निर्माण हेरिटेज की तर्ज पर किया जाएगा। साथ ही इसका निर्माण KDA के द्वारा किया जाएगा।
प्रथम चरण के कार्य के लिए बजट जारी होते ही निर्माण शुरू हो जाएगा। जिसमें सड़कों का 40 फीट चौड़ी भी किया जाएगा। साथ ही कॉरिडोर के निर्माण के लिए DPR तैयार करने का कार्य एक निजी कंपनी के द्वारा 66.57 करोड़ रुपए की मदद से हुआ है। DPR में मंदिर के कॉरिडोर के निर्माण से साथ साथ 15 मकानों, 50 दुकानों, संस्कृत स्कूलों और 2 धर्मशालाओं को अधिग्रहण कर मुआवजा दिया जाएगा और यदि किसी को मुआवजा नहीं चाहिए तो, उसे जमीन के बदले जमीन दी जाएगी।
प्रथम चरण का कार्य 2 सालों में होगा पूरा
मथुराधीशजी मंदिर के कॉरिडोर के निर्माण के लिए बजट आवंटन का कार्य अब अपने अंतिम चरण में प्रवेश कर चुका है। अंतिम चरण का काम पूरा होते ही प्रदेश सरकार बजट आवंटित करेगी और निविदा आमंत्रित करके निर्माण कार्य शुरू कर दिया जाएगा। अनुमान के मुताबिक प्रथम चरण का कार्य 2 सालों में पूरा हो जाएगा। कॉरिडोर के विकास और हेरिटेज कार्यों के लिए पर्यटन विभाग बजट जारी करेगा। बाद में कोटा विकास प्राधिकरण के द्वारा मथुराधीशजी मंदिर कॉरिडोर का निर्माण कराया जाएगा।
निर्माण कार्य में होंगे ये काम
मथुराधीशजी मंदिर के रास्ते को चौड़ा करने के लिए सड़क का 40 फीट चौड़ीकरण किया जाएगा। सड़क का निर्माण नामदेव धर्मशाला से भट्टजी तक किया जाएगा। मंदिर कॉरिडोर में 15,000 वर्ग फीट मल्टीलेवल पार्किंग का निर्माण होगा। इसके अलावा साईं बाबा मंदिर से मधुराधीश तक के मार्ग को सुगम करने के लिए सड़क सहित अन्य हेरिटेज कार्य भी किए जाएंगे।
मंदिर से संबंधित कुछ इतिहास
1729 विक्रमी के समय में औरंगजेब का मंदिर तोड़ो अभियान चल रहा था तो, ब्रजभूमि के सब वल्लभ समुदाय के लोग अन्य हिन्दू राज्यों के पास शरण के लिए चले गए थे। 1727 के समय मथुराधीश के प्रभुजी बूंदी शहर (हाडा राजाओं के राज्य) में पधारे थे और 65 सालों तक बूंदी शहर के बालचंद पाड़ा मुहल्ले में विराज रहे थे। बाद में 1795 में दुर्जनशाल (कोटा के पूर्व महाराजा) ने प्रभुजी को कोटा में पधरवाया। कोटा के पाटनपोल दरवाजे के पास प्रभुजी का रथ ठहरने से आचार्य गोस्वामी जी ने कहा कि प्रभुजी की यहीं विराजित होने की इच्छा है। बाद में द्वारकादास (कोटा के दीवान) ने अपनी कोठी को गोस्वामी के नाम कर दिया। फिर कोठी को मंदिर के रूप में बदला गया और प्रभुजी को यहीं पर विराजमान कर दिया गया।
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